कहते हैं कि स्वस्थ शरीर ही मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी होती है। स्वास्थ्य जीवन खुशहाल मन और मानव जीवन की नियामत है। भारत के संविधान का अनुच्छेद- 21 निर्बाध जीवन जीने की स्वतंत्रता देता है, लेकिन स्वस्थ जीवन उपलब्ध कराना किसकी जिम्मेदारी शायद इसका भान किसी को नहीं। कहने को हमारा देश 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की तरफ़ अग्रसर है, लेकिन स्वास्थ्य व्यवस्था के क्षेत्र में अभी भी देश की स्थिति वही ढाक के तीन पात वाली है। चंद राज्यों को छोड़ दीजिए। उसके बाद स्वास्थ्य व्यवस्था का हमारे देश में क्या ढांचा है। उसकी कलई स्वतः खुल जाएगी। कोरोना की पहली और दूसरी लहर में तो हम सभी ने देखा है कि कैसे देश में स्वास्थ्य की हालत मलिन थी। अब कुछ बुद्धिजीवी तर्क देंगे कि कोरोना ने तो पूरी दुनिया में तांडव मचाया था। फ़िर भारत उससे अछूता कैसे रह सकता है। ऐसे में चलिए एक बार मान लेते हैं कि कोरोना ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया, लेकिन ऐसी कौन सी स्थिति हमारे देश में देखने को मिली। जब स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमने बेहतर प्रदर्शन किया हो। चलिए भाजपा-कांग्रेस के राजनैतिक द्वंद से भी बाहर निकलकर बात करते हैं। आख़िर आज़ादी के बाद से ऐसी कौन सी सरकार आई। जिसने बेहतर स्वास्थ्य नीति को लेकर क़दम उठाया हो। राज्यों की बात करेंगे फ़िर स्थिति और भी पतली नज़र आएगी।
गौरतलब हो कि कोरोना ने वक्त के साथ अपना रूप अवश्य बदल लिया पर हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति पर आज भी ज़्यादा असर नही पड़ा। आज न केवल कोरोना के अलग-अलग वेरिएंट की संभावना से लोग दहशत में हैं, बल्कि डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियों से भी लोग काफी भयभीत है। देखा जाए तो आज भी हमारे देश में स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं पर नाम मात्र का खर्च किया जाता है। जो एक लोकतांत्रिक देश की दुःखती रग है। जिसपर गाहे- बगाहे कोई न कोई बीमारी आकर नमक छिड़कने का काम करती है। ऐसे में देखें तो कहीं न कहीं ये सभी तथ्य इस बात के गवाह हैं कि आख़िर हमारे देश में मानवीय जीवन की कितनी महत्ता है? कभी कभी तो सरकारी रवैये को देखकर यह लगता है कि शायद राजनेता अपने आपको अजर-अमर समझते हैं और जनता को सिर्फ़ मततंत्र की उवर्रकता बढाने वाला अंश। हां नहीं तो अगर ऐसा नहीं होता तो कुछ न कुछ परिवर्तन स्वास्थ्य ढांचे में तो जरूर दिखाई पड़ता, लेकिन योजनाओं का एलान देश में होता रहता है और आम जनता स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में अपने प्राण गंवाती रहती है। यहां किसी भी एक दल की सरकार को नीचा दिखाना या किसी का गुणगान करना मक़सद नहीं है, सिर्फ़ और सिर्फ़ मक़सद है तो इतना कि वर्तमान स्थितियों को देखते हुए राजनीतिक स्तर पर ऐसी पहल शुरू हो, ताकि स्वास्थ्य ढांचे तक हर किसी की पहुँच सुनिश्चित हो।
चलिए आज हम एक देश के बड़े राज्य को उदाहरण स्वरूप आपके सामने रखते हैं। फ़िर आप अपने हिसाब से अंदाजा लगाते रहिएगा कि देश में स्वास्थ्य ढांचे की क्या स्थिति है। वैसे यहां राजस्थान का ज़िक्र कर रही तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि सिर्फ़ राजस्थान में स्वास्थ्य को लेकर ऐसी स्थिति है, बल्कि अन्य राज्यों की स्थिति भी कमोबेश कुछ ऐसी ही है। बता दें कि अगर हम बात राजस्थान राज्य की करे तो आंकड़े चौकाने वाले निकल कर सामने आते है। राजस्थान जैसे बड़े राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च छतीसगढ़, उत्तराखंड और असम जैसे राज्यों से भी कम है। आरबीआई के आंकड़ों की माने तो प्रदेश में एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सालाना 1706 रुपये खर्च किया जाता है। इसी रकम में स्वास्थ्य कर्मचारियों की सैलरी, पेंशन और स्वास्थ्य संचालन तक शामिल है। अब सोचिए अगर एक व्यक्ति पर सिर्फ 1706 रुपए का खर्चा राजस्थान सरकार करती है। फ़िर उसमें से कितना हिस्सा कर्मचारियों को जाता होगा और कितना मरीजों के हिस्से में आता होगा? किसका सहज आंकलन आप बैठे-बैठे कर सकते हैं। वैसे एक दूसरी बात हमारे देश में प्राइवेट लॉबी हर क्षेत्र में काफ़ी सक्रिय है और उससे अछूता मेडिकल क्षेत्र भी नहीं, लेकिन सोचिए जिस देश में गऱीबी का पैमाना ही 22 और 27 रुपए के बीच आकर रुक जाता है। फ़िर ग़रीब लाखों रुपए खर्च करके प्राइवेट अस्पताल तक कैसे पहुँच सकता है और मान भी लीजिए पुश्तैनी ज़मीन या घर वग़ैरह बेचकर वह प्राइवेट अस्पताल पहुँच भी गया। फ़िर भी इसकी क्या गारंटी है कि उसकी जान बच ही जाएगी और बच भी गई तो उसके सभी अंग सही-सलामत रहेंगे। इसकी जिम्मेदारी प्राइवेट अस्पतालों में कौन लेगा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं। जिनके उत्तर भी इस व्यवस्था को काफ़ी बोझिल बना देते हैं। ख़ैर बात जहां से शुरू हुई। वहीं वापस लौटते हैं कि जैसी स्थितियां स्वास्थ्य को लेकर राजस्थान और बाकी राज्यों की है। इस बात से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का किस तरह से मख़ौल उड़ाया जाता है। देश के उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने हाल ही में देश में डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ की कमी पर चिंता भी जताई थी। हमारे देश में डॉक्टरों की कमी कोई नई बात नहीं है बल्कि एक दशक से यह समस्या बनी हुई है। जिस पर हुक्मरानों को ध्यान देने की जरूरत है।
गौरतलब हो कि 2017 की हेल्थ पॉलिसी में यह स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि राज्य सरकारों को जीडीपी का न्यूनतम 2.5 फीसदी हेल्थ बजट पर खर्च करना है पर अब तक प्रदेश सरकारों ने इसे गम्भीरता से नही लिया है।राजस्थान जैसा सम्पन्न राज्य हेल्थ इंडेक्स में 16 वें नम्बर पर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 1000 व्यक्ति पर एक डॉक्टर उपलब्ध होना अनिवार्य है तो वही राजस्थान में यह आकंड़ा 10,976 व्यक्ति प्रति एक डॉक्टर है। वही नर्सो की बात करे तो तीन मरीज पर एक नर्स होना चाहिए। जबकि राजस्थान में 40 मरीजों पर एक नर्स उपलब्ध है। यानी नर्सो पर 13 गुना अधिक भार है। जिस देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की ऐसी दुर्दशा है। वहां कोरोना जैसी महामारी किस तरह अपना तांडव दिखाएगी इसका परिणाम कोरोना काल में देख ही लिया है। कोरोना की दूसरी लहर में किस तरह से जनता ऑक्सीजन की किल्लत और इलाज को लेकर तरसी थी यह बात किसी से छिपी नहीं है। अब जब कोरोना की तीसरी लहर ने देश में दस्तक दे दी है या इसकी संभावना जताई जा रही है और कोरोना के नित नये वेरिएंट आ रहे है, बावजूद इसके हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था का निम्नतम स्तर पर होना कई सवाल खड़े करता है। इतना ही नहीं क्या शासन प्रशासन को मानवीय जीवन की कोई अहमियत नही रह गई है? सवाल तो एक यह भी है।
वहीं यह तो सभी जानते है कि किसी भी देश का सामाजिक आर्थिक विकास देश के सेहतमंद व स्वास्थ्य नागरिकों पर ही निर्भर करता है। हमारा देश विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन स्वास्थ्य व्यवस्था की बात की स्थिति काफी निराशाजनक है। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में कोरोना ने जिस तेजी से पैर पसारे थे वह कहीं न कहीं स्वास्थ्य व्यवस्था की नाकामी का ही परिणाम है। गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं किस तरह से चरमराई हुई है इसकी कल्पना इस बात से ही लगाई जा सकती है कि जयपुर जैसे बड़े शहर से मात्र 30 किलोमीटर दूर सामरेड कला गांव में स्वास्थ्य केंद्र पर पिछले पांच वर्षों से ताला लगा हुआ है। 7 हजार की जनसंख्या वाले इस गांव में न ही कोई डॉक्टर उपलब्ध है और न ही कोई नर्सिंग स्टाफ मौजूद है। ये खबरें बीते दिनों में अखबारों की सुर्खियां बन चुकी हैं। इतना ही नहीं कोरोना तो दूर साधारण बीमारी में भी ग्रामीणों को इलाज के लिए जयपुर आना पड़ता है। वहीं सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि ग्रामीणों को वेक्सिनेशन करवाने के लिए भी दूसरे गांव में जाना पड़ा। इस बात से स्थिति साफ हो जाती है कि हमारे हुक्मरान चाहे जितने विकास के दावे कर ले लेकिन आज भी हमारे देश मे मूलभूत आवश्यकताओं में से एक स्वास्थ्य व्यवस्था अब भी वेंटिलेटर पर है। ऐसे में वर्तमान समय मे हमारे देश में एक ऐसी स्वास्थ्य नीति की नितांत जरूरत है जो मौजूदा समय में देश की जरूरतों के अनुरूप ढल सके। हमारे देश से हर साल हजारों डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ विदेशों का रुख कर रहे है यह भी चिंता का विषय है। ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2020 के आंकड़ों की ही बात करें तो देश में 10 हजार लोगों पर सिर्फ 5 हॉस्पिटल बेड है। यह आंकड़ा बताने के लिए काफी है कि हमारे देश मे स्वास्थ्य व्यवस्था किस तरह चरमराई हुई है। यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि आज भी स्वास्थ्य सेवाएं सरकार की प्राथमिकता में नहीं आती है। ऐसे में कोरोना से सबक लेने के बाद सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को कितनी अहमियत देती है यह आने वाला वक्त ही बताएगा!
(लेखिका- सोनम लववंशी )
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