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(चिंतन-मनन) पूर्वाग्रह न पालें 

(चिंतन-मनन) पूर्वाग्रह न पालें 

पुत्र वयस्क हो चुका था। उसने एक दिन पिता से कहा, 'पिताजी! आज से मैं आपके साथ भोजन नहीं करूंगा।' यह कथन तनाव पैदा करने वाला था। पर पिता समझदार था। उसने तत्काल कहा, 'बेटा! कोई बात नहीं है। इतने दिनों तक तुम मेरे साथ भोजन करते रहे तो आज से मैं तुम्हारे साथ भोजन करने लग जाऊंगा। कोई खास बात नहीं है।' पुत्र प्रसन्न हो गया। तनाव मिट गया। आप्रोश समाप्त हो गया। कोई अन्तर नहीं आया। पुत्र के मन में अहं जाग गया कि अब मैं पिता के साथ भोजन क्यों करूं? पिता ने उसके अहं को परोक्षत: पुष्ट करते हुए कह दिया, 'मैं तुम्हारे साथ भोजन करने लग जाऊंगा।' यह है समन्वय की दृष्टि। समन्वय के दृष्टिकोण ने समस्या को सुलझा दिया।  
आदमी में अनेक प्रकार के आग्रह होते हैं, पूर्वाग्रह होते हैं। एक बात पकड़ ली तो फिर उसे छोड़ने का मन ही नहीं होता। जैसे मकोड़ा टूट जाता है, पर अपनी पकड़ नहीं छोड़ता, वैसे ही आदमी टूट जाता है, पर आग्रह को नहीं छोड़ता। मकोड़ा अज्ञानी है। उसकी चेतना विकसित नहीं है। आदमी ज्ञानी है। उसकी चेतना बहुत विकसित है। वह पकड़ को, आग्रह को छोड़ भी सकता है। सामाजिक या पारिवारिक जीवन में आग्रह जितना कम होता है, उतना ही जीवन सुखद और शांत रहता है। आग्रही व्यक्ति छोटी-सी बात को इतना तान देता है कि वह बड़ी समस्या पैदा कर देती है। सारी उलझनें पूर्वाग्रह के कारण पैदा होती हैं। दोनों ओर का पूर्वाग्रह स्थिति को बिगाड़ देता है। एक व्यक्ति यदि आग्रह को छोड़ देता है, तो स्थिति सुलझ जाती है। खींचने का अर्थ ही है समस्या का उलझना। इससे तो समस्या सुलझती नहीं।  
 

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