
लगभग दस वर्ष पूर्व की घटना है। वह ठंड की ही एक रात थी।एक कस्बाई बस्ती में कवि सम्मेलन था,जिसे पूरा करके मैं लौट रहा था। स्टेशन पर पहुंचते-पहुंचते दो बज गए थे। ट्रेन कुछ लेट थी,तो मैं प्लेटफॉर्म की एक बेंच पर बैठकर ट्रेन का इंतज़ार करने लगा।
तभी मेरी नज़र प्लेटफॉर्म के कोने में लगभग गठरी बनकर पड़े हुए एक आदमी पर पड़ी,जो पड़ा-पड़ा काँप रहा था।गौर से देखने पर मैंने पाया कि वह एक वृद्ध है,जिसके पास पहनने के लिए न कोई ऊनी/गर्म कपड़ा है,न ही ओढ़ने के लिए कोई कम्बल।
मेरा मन हुआ कि कवि सम्मेलन में सम्मान के रूप में मिले शॉल को मैं उसे ओढ़ा दूं,पर दूसरे मन ने कहा कि,"शरद यह मूर्खता मत कर,भावना में मत बह, यह तो सम्मान में मिला शॉल है,यह अनमोल है,इसे यूं जाया करना ठीक नहीं।"
पर संवेदना ने कहा,"सम्मान से बड़ी मानवता होती है,परोपकार होता है--------"
"नहीं"
नहीं"
"नहीं"
"नहीं"
मैं इसी उधेड़बुन और मानसिक द्वंद्व में फँसा था कि तभी ट्रेन आ गई।मैं ट्रेन की ओर लपका।
गेट पर पहुँचकर मैंने फिर मुड़कर देखा,वह वृद्ध अब भी पड़ा हुआ काँप रहा था।तभी ट्रेन ने रेंगना शुरु कर दिया। मैंने आव देखा न ताव।मैं मुड़ा,और मैंने दौड़कर कवि सम्मेलन में मिला शॉल उस वृद्ध को ओढ़ाया,और दौड़कर चलती हुई ट्रेन में चढ़ गया।
मुझे लगा कि मेरे अंतर्मन के साथ ही सारा वातावरण ही गर्म हो गया है,और ठंड कहीं फुर्र हो गई है।
(लेखक-प्रो(डॉ)शरद नारायण खरे)