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आखिर जीत ही गए किसान!

आखिर जीत ही गए किसान!

कृषि क़ानून के विरोध में लंबे समय से चल रहे किसानों के आंदोलन को एक बड़ी जीत हांसिल हुई है । प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनो कृषि कानूनों को वापस करने का ऐलान किया है।हालांकि ये कानून अब सिर्फ प्रधानमंत्री के कहने से वापस नही होंगे बल्कि इसके लिए सरकार को एक विधेयक कृषि कानून वापसी सम्बंधित लाना होगा। प्रधान मंत्री के इस ऐलान के बाद देश भर के किसानों में भारी खुशी  है। किसान इसे अपनी ऐतिहासिक जीत बता रहे है।इस जीत पर कही किसान मिठाई बांट कर तो कहीं आतिशबाजी कर अपनी खुशियो का इज़हार कर रहें हैं। 11 माह से अधिक समय से किसानों को कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन करना पड़ा हैं।सात सौ किसानों की आंदोलन में जान भी गई है । सरकार के लिए यह आंदोलन गले की फांस बना हुआ था, जिस कारण केंद्र सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा है।कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने भी इसे किसान ताकत का प्रमाण बताया।उन्होंने किसान नेता  राकेश टिकैत के रुख का समर्थन किया और कहा कि इस सरकार का रुख हर रोज बदलता है, बदलते रुख और नीयत पर विश्वास करना मुश्किल है।किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे राकेश टिकैत ने साफ कहा है कि प्रधानमंत्री के इस ऐलान पर उन्हें भरोसा नहीं है. संसदीय प्रक्रिया के जरिए ये कानून वापस वापस किये जाने की उन्होंने मांग की ,जो कानून सम्मत भी है।
 कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने  सरकार, प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी  पर इस मुद्दे को लेकर हमला बोला है। उन्होंने कहा कि 700 से अधिक किसानों की शहादत, 350 दिन से ज्यादा का संघर्ष कम नही होता। मंत्री के बेटे तक ने किसानों को कुचल कर मार डाला,लेकिन सरकार निर्दयी बनी रही।सरकार को कोई परवाह नहीं थी किसानों की।उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे इस आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों को न्याय दें।मोदी सरकार कृषि कानून के समर्थन में लगभग एक साल तक अड़ी रही वही किसान बिना कानून वापसी के कदम पीछे हटाने को तैयार नही हुए।सर्दियों से गर्मी और अब फिर सर्दी आ गई है।किसानों की आंदोलन करते करते कमर टूट चुकी थी।लेकिन हौसला बरकरार रहा।शायद सरकार यही चाहती भी थी कि किसान थककर घर लौट जाए।कोरोना महामारी के बावजूद किसानों का आंदोलन रत रहना और सरकार द्वारा उनकी तरफ से आंखे मूंद लेना,कही न कही लोकतंत्र की जड़ो को कमजोर करता नजर आता है ।दिल्ली के किसान आंदोलन में करीब सात सौ किसानों की जान जा चुकी है।जो कदापि देश और किसान हित मे नही रहा है। किसानों की दुख तकलीफ को छोडकर पूंजीपतियो के हाथों में किसानों की जमीन सोंपने के लिए भूमिअधिग्रहण का मनमाना कानून बनाये रखने पर अडिग रही सरकार से पूरा विपक्ष लोहा लेता रहा । लेकिन उनकी आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज बनी रही।अनेक किसान संगठन तक मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाते उठाते थक चुके है।कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी इस मुददे
को लेकर किसानो के पक्ष में खड़ी रही। ताकि देश के अन्नदाता व उसकी जमीन को बचाया जा सके।चुनाव के समय किसानों एवं युवाओं को खुशहाली के बडे बडे सब्जबाग दिखाकर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी  सिर्फ और सिर्फ
सरमायेदारों के पैरोकार दिखाई पडते रहे है। जो दुरर्भाग्यपूर्ण है। यह दुर्भाग्य ही है कि कृषि
प्रधान देश होने और देश की सत्तर प्रतिशत जनता किसान मजदूर वर्ग से होने के बावजूद देश में किसान मजदूरों के पैरोकार नजर नही आ रहे है।
उनके हित में न किसान राजनीति बलशाली हो पाई और न ही मजदूर संघ मजबूत रह पाए है।
जिसकारण किसान मजदूर अपने ही देश में असहाय सा हो गया है और देश के नेताओं को किसानों की याद केवल चुनाव के समय आती है। चुनाव जीतते ही राजनेता किसान को भूलकर
प्रायः पूंजीपतियों की गोद में जाकर बैठ जाते है। जब जब भी किसानों ने अपना संगठन बनाकर अपनी मांगो को लेकर सरकारो पर दबाव बनाने की कौशिश की तब तब ही इन सत्ताधारियो ने किसान सगंठनों में येनकेन प्रकारेण फूट डालकर इन सगंठनों को खत्म कराने मे कोई कसर बाकी नही छोडी। तभी
तो आज ये किसान  अपने अस्तित्व को बचाने की लडाई तक नही लड पा रहे है।
देश में यूं तो महाराष्टृ का शेतकरी किसान संगठन और पंजाब का 'जटटा पगडी संभाल 'आन्दोलन सबसे पहले सुर्खियों में आया था लेकिन सही मायनों में उ0प्र0 के शामली करमूखेडी में
करीब साढ़े तीन दशक पहले बिजली की बदहाली के खिलाफ किए गए किसान आन्दोलन से 
चौ0 महेन्द्र सिहं टिकेत को किसान नेता के रूप में पहचान मिली थी। कम पढा लिखा होने के कारण टिकेत शुरू में काफी अक्खड़ भी रहे।लेकिन सीधा सच्चा होने के कारण ही किसानो के लिए वह बहुत कम समय में मसीहा बन गए थे।
अपने कडे स्वभाव के कारण किसानो का अपार जनसमर्थन मिलने के बावजूद वे कभी किसान हित में बडे फैसले नही करा पाये। उनका यह फरमान कि जब तक किसानो की समस्याए हल नही हो जाती,तब तक किसान बिजली पानी के बिलों का भुगतान नही करेगे। किसानो को लगातार कर्जदाररहा। जिस कारण कर्जा बढने से कई किसानों को आखिर में कर्ज चुकाने के लिए अपनी जमीन तक
बेचनी पडी। चाहे करमूखेडी का आन्दोलन हो या भोपा का किसानों का संधर्ष या फि
में किसानो की समस्याओ के
लिए तत्कालीन मुख्यमन्त्री वीर बहादुर तक को धडे मे पानी पिलाने की जिद, हर मामले में
महेन्द्र सिंह टिकेत ताकतवर बनकर उभरते रहे। उन्ही के कारण सिसौली को किसानो की राजधानी कहा जाने लगा था और सिसौली को दिल्ली से रोडवेज की बसो से जोड दिया गया था।
चौ0 महेन्द्र सिहं टिकेत ने अपने किसान आन्दोलनों में कई बार दिल्ली में डेरा डाला और सरकार को झुकाने की कौशिश की । लेकिन टिकेत द्वारा लिए गए निर्णय कभी किसान हितकारी नही बन पाए । दरअसल चौ0 टिकेत की सलाहकार मण्डली में पढे लिखे लोगो का हमेशा अभाव रहा ,इसी कारण किसान शक्ति पास होने पर भी दिशाहिन होने के कारण इस शक्ति का सही फायदा नही उठाया जा सका। लेकिन
इतना जरूर हुआ कि किसानो की आवाज देश दुनिया में पहुंचने से केन्द्र और राज्य सरकार ने
किसानों के बारे में सोचना जरूर शुरू कर दिया था। जिसे चौ0 महेन्द्र सिहं टिकेत की उस समय की सबसे बड़ी सफलता कहा जा सकता है। चौ0 महेन्द्र सिह टिकेत पर उनके जीवन काल में मनमानी करने व किसान शक्ति का फायदा उठाने के भी आरोप लगे लेकिन फिर भी कम से कम उ0प्र0 व उत्तराखण्ड मे जीवनप्रर्यन्त चौ0 महेन्द्र सिहं टिकेत का दबदबा बना रहा।चाहे मुलायम सिहं यादव हो या चौ0 अजीत सिहं या फिर अन्य कोई किसान नेता 
कोई भी चौ0 महेन्द्र सिहं टिकेत को भुलाकर किसान राजनीति उनके जीते जी नही कर पाया। चौ0 महेन्द्र सिह टिकेत के सामने बडे से बडे नेताओ ने पानी भरा। टिकेत चाहते थे कि किसान संगठनो में एका हो ,इसके लिए उन्होने कई बार पहल भी की, 
लेकिन चाह कर भी सफलता नही मिल पाई । वास्तव में टिकेत का जन्म किसानो के साथ हो 
रहे अन्याय को कुचलने के लिए हुआ था। जिसमें टिकैत काफी हद तक सफल भी रहे। 
हालाकि आज भी टिकेत के संगठन भारतीय किसान यूनियन से हर भ्रष्ट कर्मचारी व अधिकारी 
डरता है। पुलिस की मनमानी भी टिकेत के सामने कम ही चल पाई। पुलिस थानो में 
मवेशियों समेत किसान अक्सर टिकेत के आवहान पर गिरफतारी देते तो पुलिस की सिरदर्दी बढ 
जाती थी। लेकिन टिकेत पुलिस वालो को अपने ही बच्चे बताकर उनका सहयोग भी आसानी 
से ले लेते थे। अपने देहाती अंदाज और भाषा शैली के कारण टिकेत मीडिया के भी चेहतेे रहे। चौधरी महेन्द्र सिंह टिकेत व अब चौधरी अजित सिंह का इस दुनिया से चले जाना जैसे किसान राजनीति को भी अलविदा कर गया।क्योंकि उनके बाद ऐसा कोई किसान नेता नज़र नही आता तो महेंद्र सिंह टिकैत जैसा जज्बा या फिर चौधरी अजित सिंह जैसा प्रभाव रखता हो।  जिस देश का अन्नदाता किसान आत्म हत्या करने लगे या फिर वह हालात के मारे दम तोडने लगे तो वह देश कैसे सुरक्षित और खुशहाल रह सकता है। किसान  हित में अब सरकार को कुछ अन्य कदम उठाने चाहिए। जैसे, उत्तराखंड,पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यो में एमएसपी के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए। यहां सरकारी खरीद भी तय वक्त पर होनी चाहिए।  न्यूनतम समर्थन मूल्य कितना महत्वपूर्ण है,यह सभी जानते है।लेकिन गन्ने,तिलहन,दलहन की खेती में सरकार को जरूर मदद करनी चाहिए। रही बात छोटे किसानों की, तो उनकी समस्याएं कई बार दूसरे कारकों से जुड़ी होती हैं। इसलिए, देश भर में कृषक उत्पादक कंपनियां बननी चाहिए, जो कृषि उत्पादन कार्य में लगी हों और खेती-किसानी से जुड़ी व्यावसायिक गतिविधियां चलाएं।
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उनको अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता।  सरकार कई उत्पाद विदेश से मंगवा लेती है। इस पर अब रोक लगनी चाहिए। जैसे, जब घरेलू दालें बाजार में आ रही हों, तब सरकार इनका आयात करने या सीमा-शुल्क कम करने का फैसला न ले। कारोबार की शर्तें भी किसानों के खिलाफ जाती रही हैं। कृषि कानूनों में उचित ही यह प्रावधान था कि किसान अपनी मर्जी से फसल बेचता, पर अगर सरकार की मंशा कृषि सुधार है, तो वह अब भी ऐसे उपाय कर सकती है कि किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य मिले या बाजार समिति उनकी उपज को उचित दाम पर खरीदे। 
 धान, गेहूं जैसी बड़ी फसलों पर एमएसपी व्यावहारिक तौर पर लागू होनी चाहिए। किसानों को इससे लाभ होगा।  किसानों की सहकारी संस्थाएं  बननी चाहिए। खासकर छोटे किसानों की संस्थाएं अगर नहीं बनाई गईं, तो वे बाजार में अपने हित नहीं ढूंढ़ पाएंगे या आढ़तियों के हाथों के खिलौने बनकर रह जाएंगे। कृषि सुधार के लिए हमें कानूनी तरीकों के साथ-साथ व्यावहारिक कदम उठाने होंगे, तभी किसानों की आमदनी को बढाया जा सकता है। सरकार को यह समझना होगा ,जब तक अन्नदाता खुश नही है तब तक देश खुशहाल नही हो सकता।
 (लेखक-डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट )
 

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