YUV News Logo
YuvNews
Open in the YuvNews app
OPEN

फ़्लैश न्यूज़

आर्टिकल

अवसाद के उपचार में पिछड़ते हम?... 

अवसाद के उपचार में पिछड़ते हम?... 

वर्तमान दौर की अगर कोई सबसे बड़ी चुनौती किसी भी राष्ट्र के सामने है तो वह निसंदेह मानसिक तनाव ही है। इस बीमारी से आज़कल हर आयु वर्ग के लोग पीड़ित हैं, लेकिन भारत में इसे सामान्य मानकर ही आगे बढ़ा जाता है। जो सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात है। बात की शुरुआत ही एक आंकड़े से की जाएं, तो एक रिपोर्ट का ज़िक्र करना बेहद जरूरी हो जाता है। गौरतलब हो कि 'द स्टेट आफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन- 2021 आन माय माइंड’ के अनुसार भारत में 15 से 24 वर्ष के 41 फ़ीसदी बच्चों व किशोरों ने मानसिक बीमारी के लिए मदद लेने की बात कही है। अब आप सोच सकते हैं कि मानसिक अवसाद किस स्तर पर और कहां-कहां व्याप्त हो चला है, लेकिन इसकी गम्भीरता को शायद अभी सिरे से नकारा जा रहा है। इतना ही नहीं यह रिपोर्ट 21 देशों के करीब 20 हजार बच्चों पर हुए इस सर्वेक्षण से निकलकर आई है। जिसमें करीब 83 फीसदी बच्चे इस बात को लेकर जागरूक दिखे कि मानसिक परेशानियों के लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह लेनी चाहिए। वहीं भारत के संदर्भ में भी इस विषय को लेकर गंभीरता देखने को मिली लेकिन अभी भी स्थिति अन्य देशों की अपेक्षा उतनी बेहतर नहीं है जितनी की होनी चाहिए।
मालूम हो कि आज हर वर्ग के लोग इस भयंकर बीमारी से ग्रसित हो रहे हैं। पल-पल बढ़ता तनाव न केवल मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है बल्कि यह हमारे जीवन के लिए भी संकट पैदा कर रहा है। आए दिन लाखों लोग मानसिक अवसाद के कारण आत्महत्या तक कर लेते है पर अफ़सोस की इस गम्भीर बीमारी के प्रति हम सजग नहीं हो पा रहे हैं। वहीं बात अगर महिलाओं की ही करे तो समाज में सबसे ज्यादा मानसिक अवसाद का शिकार महिलाएं ही है और इसकी वजह भी है। वह भी ख़ास तौर पर महिलाओं का भावनात्मक रूप से शोषण किया जाना। आज महिलाएं भले ही आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही हो लेकिन इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि आज भी समाज में महिलाओं का शोषण हो रहा है। पितृसत्तात्मक समाज आज भी महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार कर रहा है। आज भी समाज मे पुरूष वर्ग महिलाओं के जीवन पर स्वामित्व हासिल करने का प्रयास कर रहा है। इतना ही नहीं आज भी महिलाओं को पुरुषों के समान न तो अधिकार मिल पाएं हैं और न ही स्वतंत्रता। इसके अलावा महिलाओं के साथ लैगिक भेदभाव उनके जन्म के पूर्व से ही प्रारम्भ हो जाता है और आगे चलकर यही भेदभाव मानसिक तनाव की एक वजह बनता है। 
गौरतलब हो कि आज समाज में ऐसा कोई वर्ग नहीं जहां महिलाएं प्रताड़ना का शिकार न हो रही हो। बचपन से ही दुर्भावना का शिकार होती महिलाएं मानसिक अवसाद के दलदल में फंसती चली जाती है। हमारे देश के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने कहा था कि भारत, "एक सम्भावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी का सामना कर रहा है"। ऐसे में यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, राष्ट्रपति महोदय की यह बात कहीं न कहीं सोलह आने सच है, क्योंकि आज हमारे देश की युवा पीढ़ी तक इस अवसाद से ग्रसित है। हर दिन मानसिक अवसाद के कारण युवा अपनी जान तक ले लेते है, लेकिन अफ़सोस की इस बीमारी के प्रति न हमारी सरकार गम्भीर है और न ही हमारा समाज। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो लगभग सभी उम्र के 280 मिलियन से भी अधिक लोग मानसिक अवसाद का शिकार है। विश्व बैंक का मानना है कि आने वाले 10 सालों में मानसिक अवसाद अन्य बीमारियों की अपेक्षा राष्ट्र पर अधिक असर डालेगा। 
इतना ही नहीं हम तो उस देश के नागरिक हैं। जहां सामान्य बोलचाल की भाषा में भी 'चिंता को चिता के समान' माना गया है। फ़िर भी आज़तक मानसिक अवसाद को लेकर कोई गम्भीरता किसी भी तरफ़ से देखने को नहीं मिलती है। वहीं समय समय पर विभिन्न संस्थाओं के द्वारा जारी रिपोर्ट भी यह बताने के लिए काफी है कि इस गम्भीर बीमारी के प्रति हम अब भी जागरूक नहीं हो रहे है। हमारा देश मानसिक अवसाद के मरीजों की श्रेणी में अग्रणी देशों में शामिल है। वहीं हम इस गम्भीर विषय को नजरअंदाज करते आ रहे हैं। डिप्रेशन को हम आम मानसिक विकार की तरह देखते है। यही वजह है कि देश में 45.7 मिलियन लोग इसका शिकार है। सामाजिक जनसांख्यकीय सूचकांक (एसडीआई) राज्य समूह में तमिलनाडु, केरल, गोवा व तेलंगाना अवसादग्रस्त राज्यों में अग्रणी है और यही वे राज्य हैं। जो कहीं न कहीं शिक्षा के मामले में देश में बेहतर हैं। ऐसे में यह समझ सकते हैं कि शिक्षित होना भी इससे अछूते होने का आधार नहीं। वही पुरुषों की तुलना में महिलाओं में 3.9 प्रतिशत अधिक डिप्रेशन की सम्भावना रहती है। महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाना मानसिक अवसाद को ओर कई गुना बढ़ाता है। मानसिक अवसाद की समस्या न केवल भारत में है अपितु वैश्विक स्तर पर यह एक गम्भीर बीमारी बनता जा रहा है। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 की बात करें तो यह भारत में मानसिक स्वास्थ्य के सुधारो की वक़ालत करता है और यह अधिनियम मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 को रद्द करके बनाया गया था। इस अधिनियम की विफलता की सबसे बड़ी वजह यह थी कि यह अधिनियम मानसिक रोगियों के अधिकारों और अभिकर्तव्यों की रक्षा करने में असमर्थ था, लेकिन नया अधिनियम आने के बाद भी स्थिति प्रतिकूल ही है। इसके अलावा कोविड महामारी में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या ओर कई गुना बढ़ गई है। इसके बावजूद हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था में मानसिक अवसाद को लेकर कोई प्रावधान नहीं बनाए गए है। हमारे देश के संविधान का अनुच्छेद- 21 निर्बाध जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। वहीं स्वास्थ्य के क्षेत्र में बदहाली जीवन जीने के अधिकार को बाधित कर रही है। स्वास्थ्य के प्रति सरकार की बढ़ती बेरुख़ी यह बताने के लिए काफ़ी है कि हम स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकता को किस हद तक नजरअंदाज कर रहे है। ऐसे में स्वास्थ्य का मुद्दा न हमारी सरकार के लिए प्रथमिकता का विषय रहा है और न ही हमारा समाज इसे गम्भीरता से लेता है यही वजह है कि भारत एक बीमारू देश बनता जा रहा है। जिससे निपटने के लिए हमें सबसे पहले मानसिक अवसाद से निपटना होगा और यह कैसे संभव हो पाएगा। इसकी रूपरेखा अभी न सरकार के पास है और न आम नागरिक इसको लेकर सचेत। ऐसे में स्थिति विकट ही मालूम पड़ती है और यह हमारा देश जितनी जल्दी समझकर इससे आगे बढ़ने की सोचें उतना ही बेहतर रहेगा।
(लेखिका- सोनम लववंशी )
 

Related Posts