एक प्रोफेसर अपने कमरे में बैठे थे। उनके पास एक व्यक्ति आकर बोला, 'धन्यवाद, आप जैसा परिश्रमी और योग्य प्रोफेसर मैंने नहीं देखा। आपके परिश्रम से ही मेरा लड़का उत्तीर्ण हो सका है। सौ-सौ साधुवाद!' इतने में दूसरा व्यक्ति आकर बोला, 'आप जैसा परिश्रम से जी चुराने वाला प्रोफेसर मैंने कहीं नहीं देखा। आपके कारण ही मेरा लड़का अनुत्तीर्ण हुआ।' पहले व्यक्ति की बात सुनकर प्रोफेसर प्रसन्नता से झूम उठा और दूसरे व्यक्ति की बात सुनकर वह विषण्ण हो गया। यह सारा खेल मन का है। एक घटना मन के अनुकूल थी तो प्रसन्नता का प्रवाह चल पड़ा। वहीं दूसरी घटना मन के प्रतिकूल थी तो विषण्णता का वातावरण बन गया। जब भोजन अच्छा बनता है तो पत्नी को उसके लिए सौ-सौ साधुवाद दिया जाता है। जब कभी भोजन स्वादिष्ट नहीं बनता या नहीं लगता तब परोसी हुई थाली को ठोकर भी मार दी जाती है। यह सारा मन का कार्य ही होता है। भोजन सिर्फ भोजन होता है। पदार्थ सिर्फ पदार्थ होता है। उसमें स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट का आरोपण हम स्वयं करते हैं, हमारा मन करता है।
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(चिंतन-मनन) मन का क्रिय