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(चिंतन-मनन) बाहरी विकार 

(चिंतन-मनन) बाहरी विकार 

एक व्यक्ति संन्यासी के पास पहुंचा और बोला, बाबाजी! मुझे परमात्मा से मिला दो। संन्यासी ने बात टालनी चाही। लेकिन वह अपनी बात पर अड़ा रहा। संन्यासी ने उसकी भावना परखने की दृष्टि से कहा, भगवान से मिलना है तो कल आना होगा। दूसरे दिन फिर यही उत्तर मिला। लेकिन वह निराश नहीं हुआ, निरन्तर आता रहा। संन्यासी ने देखा,इसे शब्दों से समझाना कठिन है। आखिर उसे एक युक्ति सूझी। कहा, परमात्मा से मिलने के लिए तो ऊपर चढ़ना होगा। उसने स्वीकृति दे दी। संन्यासी ने उसके सिर पर पांच बड़े-बड़े पत्थर रखे और पहाड़ की चढ़ाई पर चढ़ने के लिए कहा। दो चार कदम चला होगा कि उसकी सांस फूलने लगी और वह वहीं रूक गया।  
संन्यासी बोले, यहां बैठने से भगवान नहीं मिलेंगे। वह साहस बटोरकर चला, लेकिन असफल रहा। संन्यासी ने उसके सिर पर से एक पत्थर उतार दिया। वह कुछ दूर चला फिर रूक गया। चलते-चलते पांचों पत्थर नीचे गिरा दिए गए। वह पहाड़ की चोटी पर पहुंच गया।  
संन्यासी बोला- समझे या नहीं।  
उसने उत्तर दिया- मैं कुछ नहीं समझा।  आप समझा दीजिए।  
संन्यासी- जब तक तुम्हारे सिर पर पत्थर थे, तुम चल नहीं सके और हल्के होकर चोटी तक पहुंच गए। इन बाहरी पत्थरों में भी इतनी शक्ति है तो हमारे भीतर काम, प्रोध, मद, लोभ और भय रूप जो पांच बड़े-बड़े पत्थर हैं, उनको उतारे बिना भगवान तक कैसे पहुंचोगे? इसलिए इन पाषाणों से हल्का बनने के लिए साधुओं का सान्निध्य पाना आवश्यक है।  
 

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