नई दिल्ली । उत्तरप्रदेश की बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने ताजा अध्ययन में पाया है कि जलवायु परिवर्तन बच्चों को संक्रामक रोगों के लिहाज कमजोर कर रहा है। इस शोध ने बच्चों पर पर्यावरण के लिहाज से और अधिक और व्यापक तौर पर अध्ययन करने की जरूरत को रेखांकित किया है। यह अध्ययन नतीजे संयुक्त राष्ट्र की इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की इस साल की रिपोर्ट में जताई गई चिंता के अनुरूप माने जा रहे हैं।
इस अध्ययन में पाया गया है कि जलवायु कारकों की बच्चों में कुल संक्रामक रोगों के मामलों में 9 से 18 प्रतिशत भागीदारी होती है। रिपोर्ट के मुताबिक यह अध्ययन में वाराणसी शहर के 16 साल से कम उम्र के बच्चों में होने वाली संक्रामक रोगों और जलवायु कारकों के बीच के संबंध की जांच करने के लिए किया गया था। पिछले कई सालों में देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र को बेहतर बनाने के लिए कई प्रयास हुए हैं। मानव गतिविधियों के कारण जलवायु परिवर्तन इस क्षेत्र में मिल रहे फायदों के लिए चुनौती बन सकता है। वहीं वैश्विक स्तर पर हुए आंकलन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण रोगों का सबसे ज्यादा भार बच्चों पर ही पड़ता है, जिसमें गरीबों पर सबसे ज्यादा असर होता है।
शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अधिकतम तापमान और आर्द्रता बच्चों में संक्रमण रोग फैलाने के प्रमुख कारक होते हैं। उन्होंने पाया कि अधिकतम तापमान में एक डिग्री का इजाफे की वजह से बच्चों से संबंधी हैजा और त्वचा रोगों के मामले क्रमशः 3.97 और 3.94 प्रतिशत बढ़ गए।इस अध्ययन में वराणसी के 16 साल से कम उम्र के 461 बच्चों को शामिल किया गया था। आर के माल की अगुआई में हुए इस अध्ययन में निधिसिंह, टी बनर्जी और अखिलेश गुप्ता शामिल थे। इस अध्ययन में शामिल किए गए कारकों में तापमान, आर्द्रता, बारिश, सौर विकिरण और पवन गति जैसे जलवायु कारक शामिल थे जो बनारस के बच्चों में पेट की गैस संबंधी बीमारियों, श्वसन संबंधी रोगों, वेक्टर जनित और चर्म रोगों जैसे संक्रमाक बीमारियों से संबंधित थे। अध्ययन में यह भी पाया गया है कि कुल संक्रामक रोगों के मामलों में जलवायु कारकों की भूमिका 9-18 प्रतिशत होती है। वहीं गैर जलवायु कारकों का बाकी में योगदान होता है।
भारत के विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि उपरी श्वसन नलिका संक्रमण, जिसमें अधिकांश सर्दी और फ्लू होता है, और जठरांत्र संक्रमण रोगों के भार का 78 प्रतिशत हिस्सा होते हैं। बयान में कहा गया है कि सामाजिक आर्थिक हालात और चाइल्ड एंथ्रोपोमेट्री ने जलवायु और बीमारी का संबंध बदल दिया है जिसमें ज्यादा संख्य में बच्चे कम वजन जैसे हालातों के शिकार हो रहे हैं। मंत्रालय का कहना है कि यह अध्ययन सरकार और नीति निर्धारकों का ध्यान खींचती है कि उन्होंने बाल स्वास्थ्य के लिए प्रभावी उपायों की प्राथमिकताएं तय करनी चाहिए क्योंकि अभी के जलवायु-रोगों का गठजोड़ भविष्य में बोझ बढ़ा सकता है। इसमें भारत के कुपोषित बच्चों को सबसे ज्यादा नुकासन हो सकता है। यह अध्ययन ऐसे समय में सामने आया है जब संयुक्त राष्ट्र की इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की इस साल की रिपोर्ट ने चेताया है कि पृथ्वी दो दशकों के भीतर ही 1.5 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाएगी। इससे गर्म हवा की लहरें, लंबे गर्मी के मौसम और छोटे ठंड के मौसम देखने को मिलेंगे। बता दें कि जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर बहुत अध्ययन होते हैं। इनमें से बहुत कम ऐसे होते हैं जो केवल बच्चों पर केंद्रित होते हैं।
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जलवायु परिवर्तन बच्चों को संक्रामक रोगों से लडने में कर रहा कमजोर -अध्ययन वाराणसी में 16 साल से कम उम्र के बच्चों पर किया गया