एक बार देशभक्त वीर शिवाजी सज्जनगढ़ का किला बनवा रहे थे। हजारों मजदूर वहां काम करते थे। एक दिन शिवाजी किले को देखने गए। यत्र की तरह उनको काम करते देखकर शिवाजी के मन में अहं आ गया। वे सोचने लगे- इन सबकी आजीविका मेरे द्वारा चलती है! इतने में उनके गुरू समर्थ रामदास स्वामी वहां पहुंच गए। विशिष्ट ज्ञान के द्वारा उन्होंने शिवाजी के मन की बात जान ली और निश्चय किया कि इसको प्रतिबोध देना जरूरी हो गया है। वास्तव में गुरू वे ही होते हैं, जो समय पर अनुयायियों को गिरने से बचा लें। स्वामी रामदास ने वहां काम करने वालों को आदेश दिया कि एक बड़ी चट्टान को तोड़ो। उनकी आज्ञा से चट्टान तोड़ी गई। भीतर पानी और मेढक निकले। रामदास ने पूछा - शिवाजी ! इनका लालन-पालन कौन करता है?
शिवाजी - इनका पोषण प्रकृति से होता है, करता कोई नहीं।
रामदासजी- और इन मजदूरों का जीवन किससे चलता है?
शिवाजी ने गुरू के पैर पकड़ लिए और बोले- गुरुदेव! आपने मुझे बचा लिया। आपने मेरे अभिमान को चूर-चूर कर सही रास्ता दिखा दिया। ये सब अपने पुरूषार्थ से जीते हैं। मेरा अहं झूठा था, मैं किसका पालन कर सकता हूं? कहने का अर्थ यह है कि मनुष्य प्रामाणिकता और चरित्र-निष्ठा से काम करे, पर मिथ्या अभिमान न करे। कुछ लोग सोचते हैं-हम ही सब कुछ करने वाले हैं। हम जमीन-आसमान एक कर देंगे। यही अहं भाव व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ने देता।
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(चिंतन-मनन) अहं भाव न पालें