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सरकार का ‘रिमोट’ किसके पास....!  क्या संघ अपना अस्तित्व खो चुका है....?

सरकार का ‘रिमोट’ किसके पास....!  क्या संघ अपना अस्तित्व खो चुका है....?

भारतीय राजनीति के गलियारों में इन दिनों एक ज्वलंत सवाल गूंज रहा है कि मौजूदा समय मेें केन्द्र व राज्यों की भाजपा सरकारों का ‘रिमोट कन्ट्रोल’ किस के हाथों में है? अतीत की तरह संघ के हाथों में या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों में? क्या संघ का सरकार व भाजपा पर अभी भी वही रूतबा कायम है, जो अतीत में भाजपा सरकारों के समय रहा या संघ भी आज किसी को दया का पात्र बनकर रह गया है? यद्यपि संघ प्रमुख ने ‘रिमोट’ सम्बंधी बयानों का जमकर विरोध कर यह बताने की कोशिश की है कि केन्द्र सहित राज्यों की भाजपा सरकारों पर संघ का ही नियंत्रण है, किंतु राज्य सरकारों व उनके मुख्यमंत्रियों की प्रतिबद्धता व समर्पण भावना से ऐसा कतई प्रतीत नहीं होता। 
जहाँ तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वर्चस्व का सवाल है, अतीत से यह भाजपा सरकारों का नियंत्रण रहा है, संघ के नियंता बाला साहेब देवरस से लेकर आज तक संघ का अपना महत्व व अस्तित्व रहा है, संघ ने जहां एकाधिक बार अपनी पसंद का प्रधानमंत्री बनाया, वहीं लाल कृष्ण आड़वानी व अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं को विश्व नेता बनाया। कई बार संघ ने 1991 में सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा आयोजित करने वाले लाल कृष्ण्ज्ञ आडवानी जी को सरकार के सर्वोच्च पद पर बैठाने का प्रयास भी किया संघ अटल जी के मुकाबले अडवानी जी को अधिक अहमियत देता था और जब अटल जी ने जब एक बार यह कहा कि- ‘‘आई एम टायर्ड, बट नाॅट रिटायर्ड’’ (मैं थका हूँ पर राजनीति से निवृत्तमान नहीं हूँ।) तब संघ ने तय कर लिया था कि वह आडवानी को प्रधानमंत्री पद सौंपेगा, किंतु अडवानी द्वारा करांची जाकर मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर मत्था टेकना और उनकी तारीफ करना संघ को रास नहीं आया और इसी कारण आडवानी जी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, इस घटना के बाद संघ की आडवानी जी के प्रति नाराजी बढ़ती गई और उनका राजनीतिक भविष्य गर्त में चला गया। 
यह सब इतिहास याद कराने का मेरा एकमात्र मकसद यही है कि भाजपा के बहुमत में होने पर संघ ही सरकार का नियंता होता था और पार्टी का हर छोटा-बड़ा नेता संघ का मुरीद होता था और जो संघ से दूर रहा उसका राजनीतिक भविष्य भी धुमिल रहा, जिनमें यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा या स्व. जसवंत सिंह अग्रणी नेता रहे, यद्यपि ये सभी केन्द्र में मंत्री अवश्य रहे, किंतु संघ ने हमेशा इन्हें ‘सौतेला’ ही माना और दोयम दर्जा दिया संघ का इस मामले में कड़ा रूख रहा है। 
इस प्रकार कुल मिलाकर यदि यह कहा जाये कि मौजूदा हालातों में वर्तमान केन्द्र सरकार का ‘रिमोट’ संघ के हाथों में नहीं है तो कतई गलत नहीं होगा, क्योंकि संघ की भूमिका आज ‘संरक्षक’ की नहीं महज एक ‘सलाहकार’ की ही हो गई है, आजकल संघ की भी लगभग वहीं स्थिति है जो अन्य हिन्दू संगठनों- विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल या दुर्गा वाहिकी है, न तो कभी संघ से किसी मसले पर राय या सहमति ली जाती है और उसे बड़ी योजना-परियोजना पर सोच का हिस्सा ही बनाया जाता है, अब ऐसे में ‘रिमोट कन्ट्रोल’ के मसले पर संघ प्रमुख का इन खबरों का खंडन करना भी लाजमी था और उन्होंने मीडिया के इन तर्कों का इसीलिए खंडन भी किया। 
शायद इसी रवैये से खिन्न होकर संघ प्रमुख इन दिनों विवादित बयान जारी कर रहे है, कभी वे हिन्दू और हिन्दु राष्ट्र की पैरवी करते नजर आते है तो कभी भारत-पाक विभाजन को अब पचहत्तर साल बाद निरस्त करने की वकालत करते दिखाई देते है कभी हमारी विदेश नीति या रक्षा नीति पर कटाक्ष करते नजर आते है तो कभी धर्म परिवर्तन कर दूसरे धर्मों को अंगीकार करने वालों को पुनः हिन्दू धर्म में लौटाने की बात करते है, इन्हीं वाचाली बयानों के कारण बई बार संघ प्रमुख को खण्डन या अपनी बात स्पष्ट करने के लिय मजबूर भी होना पड़ा है। 
कुल मिलाकर सम्पूर्ण मौजूदा तथ्यों को ध्यान में रखकर यदि यह कहा जाए कि देश ‘एकात्मवाद’ की ओर बढ़ रहा है तो कतई गलत नहीं होगा।  
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता )
 

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