ऐसा कोई कार्य न करें जो कृष्ण से संबंधित न हो। कोई भले ही कितने ही कर्म क्यों न करे, किंतु उसे उनके फल के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए। यह फल तो कृष्ण को ही अर्पित किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यापार में मस्त है, तो उसे इस व्यापार को कृष्णभावनामृत में परिणत करने के लिए, कृष्ण को अर्पित करना होगा। यदि कृष्ण व्यापार के स्वामी हैं, तो इसका लाभ भी उन्हें ही मिलना चाहिए। यदि किसी व्यापारी के पास करोड़ों रुपए की संपत्ति हो और यदि वह इसे कृष्ण को अर्पित करना चाहे, तो वह ऐसा कर सकता है। यही कृष्णकर्म है। अपनी इंद्रियतृप्ति के लिए विशाल भवन न बनवाकर, वह कृष्ण के लिए सुंदर मंदिर बनवा सकता है, कृष्ण का अर्चाविग्रह स्थापित कर सकता है। यह सब कृष्णकर्म है।
मनुष्य को अपने कर्मफल में लिप्त नहीं होना चाहिए, अपितु इसे कृष्ण को अर्पित करके बची हुई वस्तु को प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए। यदि कोई कृष्ण के लिए विशाल भवन बनवा देता है और उसमें कृष्ण का अर्चाविग्रह स्थापित कराता है, तो उसमें उसे रहने की मनाही नहीं होती, लेकिन कृष्ण को ही इस भवन का स्वामी मानना चाहिए। यही कृष्णभावनामृत है। किंतु यदि कोई कृष्ण के लिए मंदिर नहीं बनवा सकता तो वह कृष्ण-मंदिर की सफाई में तो लग सकता है, यह भी कृष्णकर्म है।
मत्परम: शब्द उस व्यक्ति के लिए आता है जो अपने जीवन का परमलक्ष्य, भगवान कृष्ण के परमधाम में उनकी संगति करना मानता है। ऐसा व्यक्ति चंद्र, सूर्य या स्वर्ग जैसे उच्चतर लोकों में अथवा ब्रह्मांड के उच्चतम स्थान ब्रह्मलोक तक में जाने का इच्छुक नहीं रहता। उसे इसकी तनिक भी इच्छा नहीं रहती। क्योंकि वह तो सर्वोच्च आध्यात्मिक लोक में जाना चाहता है, जिसे कृष्णलोक या गोलोक वृंदावन कहते हैं।
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(चिंतन-मनन) क्या है कृष्णकर्म?