पूर्ण दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य भगवान से गुणात्मक समता प्राप्त कर लेता है और जन्म-मरण के चप्र से मुक्त हो जाता है। लेकिन जीवात्मा के रूप में उसका वह स्वरूप समाप्त नहीं होता। वैदिक ग्रंथों से ज्ञात होता है कि जो मुक्तात्माएं वैपुंड जगत में पहुंच चुकी हैं, वे निरंतर परमेश्वर के चरणकमलों के दर्शन करती हुई उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगी रहती हैं। अतएव मुक्ति के बाद भी भक्तों का अपना निजी स्वरूप समाप्त नहीं होता। सामान्यतया इस संसार में हम जो भी ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह प्रकृति के तीन गुणों द्वारा दूषित रहता है। जो ज्ञान इन गुणों से दूषित नहीं होता, वह दिव्य ज्ञान कहलाता है। जब कोई व्यक्ति इस दिव्य ज्ञान को प्राप्त होता है, तो वह परमपुरुष के समकक्ष पद पर पहुंच जाता है। जिन लोगों को चिन्मय आकाश का ज्ञान नहीं है, वे मानते हैं कि भौतिक स्वरूप के कार्यकलापों से मुक्त होने पर यह आध्यात्मिक पहचान बिना किसी विविधता के निराकार हो जाती है। लेकिन जिस प्रकार इस संसार में विविधता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जगत में भी है।
जो लोग इससे परिचित नहीं हैं, वे सोचते हैं कि आध्यात्मिक जगत इस भौतिक जगत की विविधता से उल्टा है। लेकिन वास्तव में होता यह है कि आध्यात्मिक जगत (चिन्मय आकाश) में मनुष्य को आध्यात्मिक रूप प्राप्त हो जाता है। वहां के सारे कार्यकलाप आध्यात्मिक होते हैं और यह आध्यात्मिक स्थिति भक्तिमय जीवन कहलाती है। यह वातावरण अदूषित होता है और यहां पर व्यक्ति गुणों की दृष्टि से परमेश्वर के समकक्ष होता है। ऐसा ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त आध्यात्मिक गुण उत्पन्न करने होते हैं। जो इस प्रकार के आध्यात्मिक गुण उत्पन्न कर लेता है, वह भौतिक जगत के सृजन या उसके विनाश से प्रभावित नहीं होता।
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(चिंतन-मनन) मुक्ति का मार्ग