अब भारतीय राजनीति के शब्दकोष से ’सेवा‘ शब्द का लोप हो गया है, अब राजनीति में ’सत्ता‘ अहम्् हो गई है, और उसे हासिल करने के बाद उसे ’चिरंजीवी‘ बनाने के अथक प्रयास शुरू कर दिये जाते है। आज की राजनीति के पुरौथा न तो उन्हें सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाने वालों की चिंता करते है और न उनकी परेशानियां समझने की कौशिश करता है, एक बार सत्ता प्राप्त होने के बाद उसे सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाने वाले कहां है? किस हाल में है? इससे किसी को कोई सरोकार नहीं रहता चार साल बाद जब उन्हें याद आती है कि ”अगले साल चुनाव है“ तब ही उन्हें अपने मतदाताओं की याद आती है और हर तरीके के प्रलोभन से अपनी सत्ता को दीर्घजीवी बनाने के प्रयास शुरू हो जाते है। आम मतदाताओं की आर्थिक परेशानियों व उनके हाथ से दूर होती ”रोटी“ की आजतक चिंता नहीं की गई? क्या आम वोटर की दैनंदिनी जिन्दगी से जुड़े ये मुद्दें चुनावी मुद्दें नहीं बन सकते? आश्चर्य यह कि आज के राजनेता मतदाता भी दैनंदिनी समस्याओं से पूरी तरह वाकिफ है, फिर भी ये समस्याऐं सिर्फ और सिर्फ चुनावी वादों तक ही सीमित रहती है और चुनाव बाद उन्हें विस्मृत कर दिया जाता है।
मुझे याद है आजादी के बाद के राजनेताओं ने आजादी का श्रेय आम जनता को दिया था और करीब तीन दशक तक तत्कालीन राजनेताओं ने अपने मतदाताओं की चिंता भी की थी किंतु उसके बाद याने भारत के इतिहास प्रसिद्ध आपातकाल व उसके बाद इन आधुनिक भाग्यविधाताओं ने आम वोटर को उसके भाग्य पर छोड़ दिया और हर पांच साल में चुनावी मौसम के समय ही मतदाताओं की कभी न पूरे होने वाले वादों के साथ पूछ-परख शुरू की गई जो आज तक भी जारी है।
आश्चर्य की बात यही है कि पिछले पचहत्तर सालों में दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, किंतु भारतीय राजनीति आज भी पिछली शताब्दी के पांचवें-छठवें दशक पर ही स्थिर है, वही चुनाव के तरीके, वही सत्ता हथियाने की कौशिशें और फिर सत्ता प्राप्ति के बाद वही मतदाताओं की उपेक्षा? यह सिलसिला यही तक सीमित नहीं है, हमारे देश के मतदाता भी उसी लीक पर चल रहे है, उन्होंने भी समय के अनुसार अपने आपको बदलने और राजनेताओं की सोच को बदलने का प्रयास नहीं किया। ....और अब जो आज की राजनीति में जाति और धर्म का प्रवेश कराया गया है, यह देश तो ठीक यहां के मतदाताओं के लिए किसी ’महामारी‘ से कम नहीं है। आज जातीय आधार पर चुनावी टिकटें तय होती है, जातीय आधार पर वोट मांगे जाते है और जातीय आधार पर ही सत्ता में मंत्रियों का चयन होता है, आज की राजनीति में जो धर्म का जहर समाहित हो गया है, उससे देश की दशा व दिशा भविष्य में क्या होगी? यह आज हमारी कल्पना से परे है। अब यही चिंता का विषय है कि इस राजनीति की दिशा कब बदलेगी और आर्थिक असमानता व सामाजिक अस्थिरता राजनीति में चिंतन के अहम्् मुद्दें कब बनेगें? आज की राजनीति सिर्फ ”दिन में तारे दिखाने“ के प्रयास वाली राजनीति है। आज दावे चाहे कितने ही बढ़-चढ़कर किए जाये किंतु उनकी जड़े कहां है, यह स्वयं दावा करने वाले भी नहीं जानते।
आज की सबसे बड़ी चिंता यह भी है कि आज संसद से लेकर विधानसभाएं आपराधियों से भरी पड़ी है, इस चयन को रोकने में सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग तथा सरकारें सभी अब तक असफल सिद्ध हुए है। आज भी देश की सर्वोच्च से लेकर जिला अदालतों तक सांसदों-विधायकों पर पांच हजार से अधिक गंभीर आपराधिक मामले चल रहे है और ये विधायक-सांसद अपने रूतबे के आधार पर इनके फैसले नहीं होने दे रहे है और ये मामले दिन दूने रात चौगुने बढ़ते जा रहे है। पहले हमारे संविधान में न्यायालय में आपराधिक मामलों के दोषी को चुनाव लड़ना प्रतिबंधित था, किंतु बाद में राजनेताओं ने अपनी सरकार के माध्यम से इसे संशोधित करवाकर इसमें ”न्यायालय से दोषी“ जुड़वा दिया अब न तो कोर्ट से फैसले आ पाते है और न अपराधियों का चुनाव लड़ना बंद हो पा रहा है, इसीलिए आज राज्य विधानसभाओं व संसद के दोनों सदनों में गंभीर अपराधियों (हत्या व बलात्कार के दोषियों) की भरमार हो गई है।
इस प्रकार आज चिंता का अहम विषय यही है कि इस तरह हमारा देश व राजनीति कब तक चलते रहेगें? यह सब हमारे आधुनिक भाग्य विधाताओं पर है, यदि वे इस चलन को रोकने की ठान ले तो यह दूषित चलन रातों-रात ठीक हो सकता है? पर.... गंभीरता से सोचों कि क्या सत्ता की लोलुप राजनीति में यह संभव हो सकेगा?
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता)
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