प्रेम रहस्यपूर्ण घटना है। यह एक द्वार है जिसके एक तरफ पीड़ा दूसरी तरफ आनंद, एक तरफ नर्क तो दूसरी तरफ स्वर्ग है। एक तरफ जन्म-मृत्यु का संसार चक्र है तो दूसरी तरफ मोक्ष है। प्रेम से लोग पतित हुए और प्रेम ने ही उन्हें गुरता प्रदान की । यह सब निर्भर करता है हमारे आचरण, व्यवहार और दृष्टिकोण पर। यदि प्रेम में आवेश(आतुरता) है तब प्रेम नर्क बन जाएगा। यदि प्रेम में आसक्ति(प्रेमांधता, अनुरक्ति) है तब प्रेम एक कैद बन जाएगा लेकिन, यदि प्रेम आवेशहीन है तब वह स्वर्ग बन जाएगा । प्रेम में यदि आसक्ति नहीं होगी तब वह अपने आप में दिव्य होगा। जैसे प्रेम के पक्षी को चाहे जितने भी कीमती पिंजड़े में डाल दिया जाये, आखिर वह पक्षी के उड़ने की क्षमता को ही नष्ट करेगा । प्रेम से आवेश और आसक्ति हटते ही वह पवित्र, निर्दोष और निराकार हो जाता है। अर्थात् जब प्रेम के पक्षी को पिंजरे से मुक्त कर रहे होते हैं तब हम अनंत उड़ान के लिए उसके पंखों को मजबूती दे रहे होते हैं। आचार्य रजनीश कहते हैं - समाज हमें प्रेम की अनुमति नहीं देता क्योंकि यदि कोई व्यक्ति वास्तव में गहरे प्रेम में होता है तब उसका शोषण नहीं किया जा सकता। संसार से युद्ध तभी विदा होगा जब प्रेम संसार में फिर से आएगा। यह कहना श्रेष्यकर होगा कि प्रेम ईश्वर है, बनिस्पत सत्य ईश्वर है । क्योंकि सामंजस्य, सौन्दर्य, जीवन ऊर्जा और आनंद प्रेम के भाग हैं लेकिन सत्य का भाग नहीं हैं। सत्य को केवल जानना होता है जबकि प्रेम का ज्ञान और अनुभूति दोनों आवश्यक है। प्रेम का विकास और पूर्णता ईश्वर मिलन के साथ सृष्टि के उन्नयन की ओर उन्मुख करता हैं ।
जब हम प्रेममग्न होते है तब हमे मृत्यु से भी बड़े भय अर्थात् उसके खो जाने का दु:ख जकड़ लेता है। यही कारण है कि संसार से प्रेम लुप्त हो गया है। प्रेम स्वयं में पोषण है। जितना करेंगे, एक आभा कि भांति हमारे आसपास महसूस होगी। प्रेम, आत्मा का पोषण है वैसे ही जैसे शरीर के लिए भोजन । भोजन के अभाव में शरीर दुर्बल होता है जबकि प्रेम के अभाव में आत्मा दुर्बल होती है।
बिना प्रेम के हम नृत्य नहीं कर सकते, उत्सव नहीं मना सकते, कृतज्ञता प्रकट नहीं कर सकते और न ही प्रार्थना कर सकते हैं। प्रेम के बिना मंदिर केवल साधारण घर के समान है जबकि प्रेम के साथ साधारण घर भी एक मंदिर में रूपांतरित हो जाता है। प्रेमविहीन होकर हम रिक्त हाव-भाव की मात्र संभावना रह जाते हैं क्योंकि, प्रेम से अहंकार खत्म होता है परन्तु आत्मा जाग जाती है।
मनुष्य की तीन परतें है - पहला शरीर या शारीरिक विज्ञान, दूसरा मन अथवा मानसिकता और तीसरी उसकी आत्मा अथवा शाश्वत स्वयं। प्रेम इन तीनों तलों पर हो सकता है परन्तु इनके गुणधर्मों में अंतर होगा। शारीरिक तल पर वह केवल यंत्रयोग या काम है इसे हम प्रेम कह सकते हैं । दूसरा कवि शिल्पी चित्रकार नर्तक गायक आदि जो शरीर के पार प्रेमानुभूति के लिए संवेदनशील हैं। वे मन के सौन्दर्य, ह्रदय की संवेदनशीलता की अनुभूति कर सकते हैं इसलिए वे स्वयं उस तल पर जीते हुए अपने ह्रदय में दूसरे के ह्रदय के मनोभावों को समझ सकते हैं। कोई भी सुन्दर वस्तु जो अत्यंत कोमल कांच से बनी हो एक बार टूट जाए तो उसे जोड़ने का कोई उपाय नहीं है जैसे संबंध। संबंध एक ढांचा है जो एक दिन बनता हैं और अगले दिन समाप्त हो जाते हैं। जबकि प्रेम का कोई ढांचा नहीं। हमें संबंध की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि प्रेम नहीं है। संबंध एक विकल्प है। संबंध प्रेम के जन्म की संभावना को नष्ट कर देता है। अतः किसी प्रेम संबंध में पड़ने की बजाय एक प्रेमपूर्ण व्यक्ति बनना श्रेष्यकर होगा।
दुर्भाग्यवश किसी राष्ट्र या संस्था ने कभी नहीं चाहा कि लोगों में बलशाली प्रेमात्मा हो । कयोंकि एक आध्यात्मिक ऊर्जा वाला व्यक्ति अनिवार्य रूप से विद्रोही होता है। यदि परस्पर निर्भर, अधिकार जमाते हुए परस्पर आगे बढ़ने का अवसर नहीं देते तो हम शत्रु हैं। एक-दूसरे को अपनी आत्मा या अपना स्वयं खोजने में यदि हम कोई मदद नहीं कर रहे है तो यह किस प्रकार का प्रेम है?
जब हम अपने पति या पत्नी से प्रेम करते हैं तब वह एक प्रकार का प्रेम होता हैए जब संतानों से प्रेम करते हो तब अलग तरह का प्रेम होता है इसी प्रकार बड़ों, परिवारजनों शिक्षकों के प्रति अलग तरह का प्रेम। हमारी परम्पराओं ने प्रेम को अलग अलग नामों में बांट देने पर जोर दिया है इसके पीछे कारण यह है कि वे प्रेम से बहुत डरते रहे। क्योंकि यदि प्रेम आस्तित्वगत हो जायेगा तब उसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकेगा। लोग प्रेम के कोमल तलों पर जाने से डरतें हैं । क्योंकि भावनाएं पत्थर नहीं वे पुष्प के समान कोमल होतीं हैं । माना जाता है कि कवि और कलाकार का प्रेम फूल की भांति सुगंधित, जीवंत, वातावरण में थिरकता, बरसात और ग्रीष्म में अपना सौन्दर्य बिखेरते है परन्तु संध्या तक आते-आते वह विदा हो जाता है। बिरले लोग ही इस प्रकार से निरंतर बदलते हुए जीवन को प्रतिपल जीतें हैं। संभवतः हम पहले या दूसरे प्रकार के प्रेम से अवगत हों, जिसमें यह भय हो कि यदि हम अपनी आत्मा के तल तक पहुंचेंगे तो हमारे प्रेम का क्या होगा? निश्चित ही वह विलीन हो जायेगा परंतु, पराजय की बजाय हम एक अभूतपूर्व प्रेम का अनुभव करेंगे।
(लेखक-राकेश कुमार वर्मा )
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