मैं सांसद के कथन को स्वीकार नहीं करता हूँ और पूर्ण विरोध भी करता हूँ ,पर इस कथन का आत्मावलोकन किया जाना उचित होगा। यह आंशिक सत्य भी हैं।
मैं विगत ३७ वर्षों से अहिंसा शाकाहार जीवदया के ऊपर शाकाहार परिषद् सागर ,शाखा रेहली और भोपाल में कार्य कर रहा हूँ। यह विषय हमारे समाज के लिए और अन्य समाज के लिए नीरस विषय हैं ,इस विषय पर किसी को किसी प्रकार की रूचि नहीं हैं।
महत्वपूर्ण बात यह हैं मांसाहार शराब ,अंडा मछली खाना अब जातिगत न होकर आर्थिक हो गया हैं। गरीब व्यक्ति यदि उपभोग करना चाहता हैं तो परेशानी होती हैं पर आजकल नवधनाढ्य ,व्यापारी जैसे कपडा ,गल्ला ज्वेलर्स। इलेक्ट्रॉनिक व्यापारी आदि जिनकी अधिकतम आमदनी हैं और आजकल नवधनाढ्य अपने अपने टापू में रहकर असामाजिक रहकर ,किसी से कोई सम्बन्ध नहीं और समाज या समाज के मुखियाओं का कोई नियंत्रण नहीं होने से स्वच्छंदता होने से अनियंत्रित हो चुके।
आज सब आधुनिक संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं और आक्रामक बाजारीकरण ने हमारे चौकों या किचेन में इतनी अधिक सेंधमारी की हैं की हम पूर्ण शाकाहारी की श्रेणी में नहीं आते। संतो महंतो ,समाज के मुखियों का समाज पर कोई लगाम और उनकी कोई बात नहीं मान रहे हैं। एक कान से सुनना और दूसरे कान से निकाल देना.
पुण्य के उदय से धन सम्पन्न होने के कारण ,पापानुबन्ध से धन कमा कर धर्म में लगाकार अपने पापों को धो रहे हैं। यह भी उचित परम्परा हैं। जिससे धर्मातायनों का निर्माण अबाध रूप से हो रहा हैं यह भी शुभ संकेत है जो सर्वयमान्य हैं।
व्यापारिक क्षेत्रों में तो जो जैन आगम के अनुसार अमान्य हैं उन पर मान्यता की मुहर लग रही हैं।
विषय बहुत गंभीर और व्यापक हैं और मेने अनेकन्तवाद को ध्यान रखकर अपने विचार व्यक्त किये हैं सहमति /असहमति स्वीकार हैं।
(लेखक- विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन )