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पौधों में पराग-कण आने की प्रक्रिया इन दिनों जल्दी शुरू हो रही है -यह इसका प्रमाण है कि धरती के पर्यावरण में सब ठीक नहीं कोई गड़बड़ हुई है --जानिये इंसान पर कैसे असर डालता है फूलों में पराग-कणों का उत्सर्जन 

पौधों में पराग-कण आने की प्रक्रिया इन दिनों जल्दी शुरू हो रही है -यह इसका प्रमाण है कि धरती के पर्यावरण में सब ठीक नहीं कोई गड़बड़ हुई है --जानिये इंसान पर कैसे असर डालता है फूलों में पराग-कणों का उत्सर्जन 

नई दिल्ली। पौधों पर आने वाले विभिन्न तरह के फूलों आदि में जो छोटे-छोटे पराग-कण होते हैं, उनका हमारे जीवन में कितना महत्त्व है, ये कभी सोचा है? शायद नहीं ही सोचा होगा। बल्कि, अधिकांश लोगों का तो इस तरफ ध्यान भी नहीं जाता होगा। ये छोटे से पराग-कण इतने महत्त्वहीन नहीं हैं कि इन पर ध्यान न दिया जाए। बल्कि इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इन पर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। क्योंकि प्रकृति का पारिस्थिकी-तंत्र, जिसमें कि इंसान भी शामिल है, इन्हीं पर निर्भर है। 
प्रकृति के पारिस्थिकी-तंत्र में हर जीव को जिंदा रहने के लिए भोजन चाहिए और उससे जुड़े हर प्रकार के खाद्य-चक्र की शुरुआत पौधों से होती है, ये सब जानते होंगे। जबकि पौधों के रहने, पलने, बढ़ने और उनकी संख्या बढ़ाने में पराग-कणों की जरूरत होती है। मतलब पराग-कण आएंगे, तभी फूल खिलेगा। फल आएगा, बीज बनेगा। इसी बीच पक्षी, कीट पतंगे कुछ पराग-कणों को किसी दूसरी जगहों पर ले जाकर गिराएंगे। वहां नए पौधे लगेंगे। उनमें फिर पराग-कण आएंगे और बार-बार यही प्रक्रिया चलती रहेगी। इस प्रक्रिया के साथ जीवन-चक्र भी चलता रहेगा। बल्कि कहें कि सदियों से ऐसे ही चलता आ रहा है। इस मूलभूत जानकारी के साथ हालांकि सवाल यह उठ सकता है कि यहां अचानक इन पराग-कणों की चर्चा क्यों की जा रही है? तो इसका जवाब ये है कि अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी में एक अध्ययन हुआ है। उसमें बताया गया है कि पौधों में पराग-कण आने की प्रक्रिया इन दिनों जल्दी शुरू होती हुई देखी जा रही है। यानी निर्धारित समय समय से कुछ पहले।
इतना ही नहीं यह अधिक समय तक चल भी रही है। यह इसका प्रमाण है कि धरती, उसके वातावरण, पर्यावरण में सब ठीक नहीं चल रहा है। कोई गंभीर गड़बड़ हो चुकी है। और इस गड़बड़ी के लिए वैज्ञानिक प्रदूषण, उसकी वजह से दुनियाभर के वातावरण में बढ़ते तापमान को जिम्मेदार मानते हैं। इससे पूरा पारिस्थिकी-तंत्र गड़बड़ा रहा है। पराग-कण इंसान को बीमार भी करते हैं। इनकी वजह से खास किस्म की एलर्जी होती है। इसे पोलेन-एलर्जी कहा जाता है। इससे सांस लेने में तकलीफ होती है। नाक बहती है। बार-बार छींक आती है। खांसी भी। आंखों में लगातार जलन होती है। इन लक्षणों के साथ कई बार बुखार भी आ जाता है। उसे ‘हे-फीवर’ कहते हैं। 
वैज्ञानिकों का कहना है कि समय से पहले आने वाले पराग-कण इस तरह की बीमारियां बढ़ा सकते हैं। क्योंकि ये सभी संक्रामक बीमारियां होती हैं। एक से दूसरे में फैलने वालीं और कई बार जानलेवा भी। वैज्ञानिकों ने 1995 से 2014 तक की अवधि में पराग-कणों के आने की प्रक्रिया का अध्ययन किया है। साथ ही, इससे होने वाले असर का भी। इसके बाद जो निष्कर्ष सामने आया, वह ये कि इस सदी के अंत साल 2081 तक पराग-कणों के आने की अवधि 40 दिन तक जल्दी हो जाएगी। यानी निर्धारित से करीब 1 महीने पहले। साथ ही पराग-कणों के आते रहने की प्रक्रिया भी 19 दिन तक लंबी हो जाएगी, जो इस वक्त इससे बहुत कम है। इससे पराग-कणों का उत्सर्जन यानी वातावरण में छिटकना भी 16 से 40 फीसदी तक बढ़ जाएगा। मतलब नई मुसीबत। वैज्ञानिकों की मानें तो इस तरह की समस्या से बचाव का एक ही रास्ता है। प्रदूषण कम से कम किया जाए। वातावरण में गर्मी बढ़ाने वाली जहरीली गैसों का उत्सर्जन रोका जाए। ताकि जलवायु-परिवर्तन के इस तरह के दुष्प्रभावों से बचा जा सके।
 

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