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हारे का सहारा खाटू श्याम हमारा 

हारे का सहारा खाटू श्याम हमारा 

यहां फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को श्याम बाबा का विशाल वार्षिक मेला भरता है जिसमें देश -विदेशों से आये करीबन 25 से 30 लाख श्रृ़द्धालु शामिल होते है। इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कव के पुत्र बर्बरीक की श्याम यानी कृष्ण के रूप में पूजा की जाती है। इस मंदिर के लिए कहा जाता है कि जो भी इस मंदिर में जाता है उन्हें श्याम बाबा का नित नया रूप देखने को मिलता है। कई लोगो को तो इस विग्रह में कई बदलाव भी नजर आते है। कभी मोटा तो कभी दुबला । श्याम बाबा का धड़ से अलग शीष और धनुष पर तीन बाण की छवि वाली मूर्ति यहां स्थापित की गई। कहते है कि मंदिर की स्थापना महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद स्वंय भगवान कृष्ण ने अपने हाथों की थी। श्याम बाबा की कहानी महाभारत काल से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम जाने जाते थे तथा पान्डव भीम के पुत्र घटोत्कच्छ और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र थे। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होने युद्ध कला अपनी मां से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और उनसे तीन अभेध्य बाण प्राप्त कर तीन बाणधारी के नाम से प्रसिद्ध हुये। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे। कौरवों और पाण्डवों के मध्य महाभारत युद्ध का समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुयी। जब वे अपनी माॅ से आर्शीवाद प्राप्त करने पहुंचे तब मां को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। महाभारत के युद्ध में भाग लेने के लिये वे अपने नीले रंग के घोडे़ पर सवार होकर धनुष व तीन बाणो के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुये। सर्वप्यापी कृष्ण ने ब्राहा्रण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिए उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यदि उन्होने तीनो बाणो को प्रयोग में ले लिया गया तो तीनो लोको में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हे चुनौती दी की इस पीपल के पेड के सभी पत्रो को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौत स्वीकार कर और अपन तुणीर से एक बाण निकाला और इश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तो की ओर चलाया। 
तीर ने क्षण भर में पेड के सभी पत्तो को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा क्योंकि एक पत्ता उन्होने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था। तब बर्बरीक ने कृष्ण से कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए वर्ना ये आपके पैर को चोट पहंुचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माॅ को दिये वचन दोहराते हुये कहा कि वह युद्ध में निर्बल हो और हार की और अग्रसर पक्ष की तरफ से भाग लेगा। कृष्ण जानते थे। कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उसका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा। ब्राहा्रण बने कृष्ण ने बालक बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा । तो अवश्य करेगा। कृष्ण ने उनसे शीष का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राहा्रण से अपने वास्तिवक रूप में आने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुनकर बालक ने उनके विराट रूप में दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। तब कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखलाया। उन्होने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमी की पूजा के लिए एक वीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यकता होती है। उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे बडे़ वीर की उपाधि से अलंकृत कर उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की वह अत तक युद्ध देखना चाहता है। श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया।
(लेखक - विष्णु अग्रवाल )
 

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