नई दिल्ली । भारत यात्रा पर आए रूसी विदेश मंत्री का यह कहना महत्वपूर्ण है कि भारत रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता कर सकता है। भारत मध्यस्थ की भूमिका तभी निभा सकता है, जब रूस के साथ यूक्रेन भी इसके लिए सहमत हो। फिलहाल यह कहना कठिन है कि यूक्रेन भारत की मध्यस्थता चाहेगा या नहीं, लेकिन भारतीय नेतृत्व को इसकी संभावनाएं तो टटोलनी ही चाहिए, क्योंकि अभी तक इजरायल, तुर्की आदि ने इस दिशा में जो प्रयास किए हैं, वे नाकाम हो गए दिखते हैं।
इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि रूस के हमले के तत्काल बाद जब यूक्रेन के राष्ट्रपति ने भारतीय प्रधानमंत्री से बात की थी, तब उन्होंने यही आग्रह किया था कि भारत रूस पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर युद्ध को रोके। यदि यूक्रेन भारत की सहायता से रूस से समझौते की इच्छा व्यक्त करे तो फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सक्रियता दिखाने में देर नहीं करनी चाहिए। यूक्रेन पर चढ़ाई करने के 37 दिन बाद भी रूसी सेनाएं वांछित लक्ष्य हासिल नहीं कर सकी हैं, इसलिए शायद रूस भी यह चाहेगा कि वह किसी तरह अपना सम्मान बचाकर जंग से बाहर निकले।
नि:संदेह यूक्रेन भी तभी किसी समझौते के लिए तैयार होगा, जब उसके भी सम्मान की रक्षा होगी। रूस और यूक्रेन को सुलह की राह पर लाना एक कठिन काम है, लेकिन यदि भारत को मध्यस्थ बनने का अवसर मिले तो उसे हिचकना नहीं चाहिए। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के रवैए से यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है, तो यही कि उनकी दिलचस्पी युद्ध रोकने में कम, रूस के खिलाफ माहौल बनाने में अधिक है। अमेरिका रूस को खलनायक साबित करने के साथ ही इस कोशिश में भी जुटा है कि भारत सरीखे जो देश यूक्रेन संकट को लेकर तटस्थ रवैया अपनाए हुए हैं, वे उसके पाले में खड़े हों।
इसका पता भारत आए अमेरिका के उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर दलीप सिंह की इस अवांछित टिप्पणी से चलता है कि यदि चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करता है तो रूस बचाव के लिए आगे नहीं आएगा। पहली बात तो ऐसी भाषा कूटनीतिक मर्यादा के प्रतिकूल है और दूसरे, भारत यह नहीं भूल सकता कि दो साल पहले जब चीन ने गलवन घाटी में अतिक्रमण करने का दुस्साहस किया था तब भी अमेरिका ने बयान जारी करने के अलावा और कुछ नहीं किया था।
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अमेरिका की दिलचस्पी युद्ध रोकने में कम, रूस के खिलाफ माहौल बनाने में अधिक, मध्यस्थता को आगे आए भारत