भगवान आदिनाथ ने दिया कर्म करने का उपदेश" : आचार्यश्री आर्जव सागर
परम् पूज्य वात्सल्य मूर्ति धर्म प्रभवक आचार्य श्री 108 आर्जव सागर जी महाराज के सासंघ सानिध्य अशोका गार्डन में चल रहे चतुर्मास में 1008 मज्जिनेन्द्र सिद्धचक्र महा मण्डल विधान चल रहा जिसमें सुबह 6.30 बजे मंडलों पर भगवान का अभिषेक हुआ।मुख्य मंडल पर आचार्य द्वारा शांति धारा हुई।नित्य नियम ,देव ,शास्त्र ,गुरु , नव देवता की पूजा की गई एवं सिद्ध चक्र महामंडल विधान के चौसठ रिद्धि सिद्धि अष्ट द्रव्य के साथ इन्द्र इन्द्राणीयों भक्ति नृत्य करते हुए अर्ध समर्पित किये गये जिसके पश्चात श्रद्धालुओं ने भी सिद्ध भगवान की संगीतमय लहरियों के साथ सभी ने बड़ी उत्साह के साथ जयाकारों से पुरा पंडाल गूंजाएमान कर दिया।
आज सभी विधान में सम्मिलित इन्द्र इन्द्राणीयों को यही संदेश दिया कि प्रत्येक मानव को अपने कर्म का ही फल मिलता है और अगर कर्म अच्छे नहीं है तो स्भाविक है उसकी भाव अच्छे नहीं है क्यो कि शास्त्रों में लिखित है कि न्याय नीती से चलने वाला कभी भी दुखमय जीवन में नहीं आ सकता और यही अचछी भावना उसे पाषाण से भगवान भी बना देती है। आज आचार्य श्री जी ने आशीष वचनों में कहा कि युग के आदि में आदिनाथ वृषभ देव ने भोगभूमि के अंत में कर्म भूमि के प्रारंभ में सभी को असि मसि कृषि शिल्प वाणिज्य और विधा रूपी षट् कर्म सिखाये।
आचार्य गूरूवर जी ने आगे बताते हुए कहा कि सभी कर्मो में कृषि को उत्तम बतलाया।कृषि करने वाला न्याय नीती से खेती के माध्यम से देश के लोगों का जीवन सुखमय बनाता है। जहाँ धान्य व फलादि रूप शाकाहार किया जाता है। वहाँ प्रभु भक्ति दान धर्म,ध्यान योग आदि रूप आध्यात्मिक भावनायें प्रकट होती हैं। आशीष वचन में विराम देते हुए कहा कि इसलिए प्रभु जी ने कहा कि कृषि करो या ॠषि बनो। आदिनाथ प्रभु ने सर्वप्रथम इक्षु दण्ड (गन्ना) की खेती करना सिखलाया था और ॠषि मुनि बनने के बाद प्रथम आहार भी इक्षु रस का ही लिया।उनका प्रथम आहार श्रेयांश सोम राजा (चक्रवर्ती) के परिवार में हुआ था जिससे प्रभावित होकर वे राजा भी मुनि बने थे उनके भी मार्ग चलने लगे थे।क्योंकि भावना पाषण को भगवान बना देती है और विवेक के स्तर से निचे उतरने पर वासना इंसान को शैतान बना देती है।
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