आशिक़ ले उड़ा दुल्हन..... (लेखक-ज़हीर अंसारी)
दुल्हनियाँ सजी-धजी बैठी रही दुल्हे के इंतज़ार में। अब आई बारात कि तब आई, इसी गुनताड़े में दुल्हन का मेक-अप फीका पड़ने लगा। अधलेटी सी दुल्हन भविष्य के सपने संजोये अर्धनिद्रा में चली गई।
इधर दुल्हे के पापा, चाचा और फ़ूफा आपस में उलझे रहे कि दहेज की रक़म का बँटवारा कैसे होगा, किसके हिस्से में क्या आएगा। बारात के आगे कौन चलेगा, पहले किसका स्वागत होगा। इस सबका न्यूनतम साझा अनुबंध बना लो।
उधर दुल्हन का आशिक़ घात लगाए कई दिनों से दुल्हन को उड़ाने की जुगत में लगा रहा। आशिक़ के संरक्षक भी बेचैन रहे। ये सब किसी भी तरह सुंदर, सुशील और कमाऊ दुल्हन छोड़ना नहीं चाहते थे। लीकफ़्रूफ प्लानिंग भीतर-भीतर तैयार करने लगे।
दुल्हे के बड़बोले पापा, चाचा और फ़ूफ़ा में काफ़ी जद्दोजहद के बाद बारात निकालने की सहमति बनी। बारात के लिए बैंड-बाजे के जुगाड़ के पहले ही आशिक़ के घर वाले सतर्क हो गए। आशिक़ के संरक्षकगणों ने फ़ौरन अपनी कुशाग्र बुद्धि को जागृत किया। आधी रात को बड़े पंडित और फिर भोर छोटे पंडित से बात की। कहा सुबह आठ बजे फेरे पड़ने हैं, तैयारी करो। पंडित जी ने भी न पंचांग देखा, न गुण मिलाए और न ही मुहूर्त देखा। फ़ौरन विवाह सामग्री एकत्रित की और विवाह के लिए तैयार हो गए। सारा प्लान बड़े ही गोपनीय तरीक़े से बनाया गया। कानों-कान किसी को ख़बर न हुई। सिर्फ़ आशिक़ से कहा गया, पुरानी शेरवानी पहनकर फटाफट दूल्हा बन जाओ, दुल्हन उठाने चलना है।
सुबह जैसे ही दुल्हन के घर का किवाड़ खुला। वैसे ही आशिक़ दूल्हा बन पंडित लेकर धमक गया। दुल्हन को फ़्रेश होने तक मौक़ा न दिया गया। सीधे मंडप में बिठाला और फेरे पड़वा दिए। लो जी हो गई शादी, अब क्या उखाड़ लोगे।
अब दुल्हे, उसके पापा, चाचा और फ़ूफ़ा को कौन समझाए कि शादी ब्याह में ज़्यादा खों-खों नहीं करनी चाहिए। दुल्हन सुंदर के साथ-साथ कमाऊ थी फ़ौरन विवाह रचाते। बाद में दहेज का माल आपस में बाँट लेते। दुल्हन की कमाई आगे थोड़ा-थोड़ा नोचते रहते। आपस की चों-चों में दुल्हन भी गई और कमाई भी गई।
अरे अक़्ल के दुश्मनों इतना तो सोच लिया होता कि इसके पहले भी कई राज्यों के दूल्हों को दुलत्ती पड़ी है उसी से सबक़ ले लेते।