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दिल्ली में मौत का तांडव

दिल्ली में मौत का तांडव

 दिल्ली में मौत का तांडव

   दिल्ली के फिल्मीस्तान यानी अनाजमंडी इलाके में हुआ अग्निकांड हमारे लापरवाह सिस्टम का सबसे घटिया उदाहरण है। प्लास्टिक बैग और खिलौने बनाने वाली फैक्टी में रविवार की भोर में शार्टसर्किट की वजह से लगी आग से 43 बेगुनाह कामगारों की मौत हो गई। अग्निशमन विभाग के जांबाज जवानों ने
फैक्ट्री की छत काट कर किसी तरह जिंदा बचे लोगों को बाहर निकाल अस्पताल पहुंचाया। हादसे में दो दमकलकमियों के साथ 17 लोग घायल हुए हैं। अधिकांश लोगों की मौत दमघुटने से हुई। फैक्टी की सभी खिड़कियां बंद थी। लोग चाह कर भी बाहर नहीं निकल पाए। जहरीले धुंए की वजह से दम निकल गया। फैक्ट्री  में मजदूरों को कहीं से भी बाहर निकले का जरिया नहीं था। फैक्ट्री बेहद सकरी गली में थी। राहत एंव बचाव के दौरान अग्निशमन दल के 
कर्मचारियों को वहां पहुंचने में बेहद मुश्किल हुई।  जिस जगह यह फैक्ट्र है वहां का रास्ता बेहद सकरा है। अग्नि की भयावहता इसी से लगाया जा सकता है कि 30 दमकल की गाड़ियों ने किसी तरह आग पर काबू पाया। चार मंजिला फैक्ट्री को आग ने ऐसा निगला जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। लोग बचाओ-बचाओं चिल्लाते रहे, लेकिन मौके पर पहुँच कर भी लोग अपनों को नहीं बचा पाए। दिल्ली में हुए इस हादसे का जिम्मेदार कौन है। 22 साल पूर्व  1997 में उपहार सिनेमा कांड के बाद भी सबक क्यों नहीं लिया गया। इस हादसे में तकरीबन 59 लोगों की मौत हुई थी। आसपास के लोगों की शिकायत के बाद भी पुलिस और जिम्मेदार संस्थाओं ने कदम नहीं उठाया। हादसे के बाद घड़ियाली आंसू बहाना और मुआवजों की बरसात करना राजनैतिक दलों और सरकारों को चलन सा बनता जा रहा है। लेकिन समस्याएं नहीं सुलझ रही हैं। 
दिल्ली हो या देश का कोई दूसरा हिस्सा हमने हादसों से सबक नहीं लिया। हम इंतजार करते हैं कि हादसें हों और राजनीति की जाय। राजनीति, राजनेता और सरकारें एक दूसरे पर कीचड़ उछाल लाशों पर सियासत चमकाती हैं। जब मौसम चुनावी हो तो यह मसला और अहम हो जाता है। इससे पूर्व अगर ऐसी अव्यवस्था पर गौर किया जाता तो इस तरह के हादसे नहीं होते। हादसा इतना भयानक था कि लोग अपनी जान बचाने के लिए चिल्लाते रहे। घरवालों और दोस्तों को फोन कर मौत की अंतिम सांस की दास्तां सुनाते-सुनाते मौत के आगोश में चले गए। परिजन घटना स्थल पर पहुंचने के बाद भी सब कुछ देखते रहे। अस्पतालों के साथ लाशों के ढेर से लोग अपनों को खोजते रहें। फैक्ट्री पूरी तरह अवैध थी। सुरक्षा और बचाव के इंतजाम नहीं थे। अग्निशमन विभाग से एनओसी तक नहीं ली गई थी। दिल्ली की इस अनाजमंडी में जिस जगह यह चार मंजिला फैक्ट्री  स्थाापित है। वह बेहद घनी आबादी के साथ बिजली के तारों से गूंथा है। इस घटना में दो दमकलकर्मी  समेत 17 लोग घायल हुए हैं। गैर कानूनी तरीके से चल रही इस फैक्ट्री को बंद कराने के लिए दिल्ली सरकार और एमसीडी ने कारगर कदम नहीं उठाए। अब हादसे के बाद केंद्र और दिल्ली सरकारें एक दूसरे पर कीचड़ उछाल कर चुनावी जमींन तैयार करने में जुट गई हैं। लेकिन सड़ेगले सिस्टम की वजह से उन बेगुनाहों का भला क्या दोष जो बेमतलब मारे गए। जब देश की राजधानी का ऐसा हाल है तो बाकि हिस्सों की सोचिए।  
दिल्ली पुलिस ने फैक्ट्री मैनेजर और मकान मालिक को गिरफ्तार किया है। इससे अधिक और कर भी क्या सकती है। अगर यही गिरफ्तारी पहले हो जाती।  फैक्ट्री बंद करा दी जाती तो 43 बेगुनाह लोगों की जान बचायी जा सकती थी। मौत का यह आंकड़ा अभी बढ़ सकता है। जिस जगह यह हादसा हुआ वहां दो दिन पूर्व भी एक अग्निकांड हुआ था लेकिन नहीं लिया गया। दिल्ली में कुछ माह पहले एक होटल में आग लगने से कई लोगों की जान चली गई थी। इसी साल मई में सूरत हादसे से भी सबक नहीं लिया गया।
जहां एक कोचिंग सेंटर में आग लगने से कई स्कूली छात्र- छात्राओं की मौत हो गई थीं।  प्रधानमंत्री मोदी, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हादसे पर संवेदना जतायी है। लेकिन इस संवेदना से क्या होने वाला है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने मृतकों के परिवारवालों को 10-10 लाख और घायलों को एक लाख देगी। जबकि केंद्र सरकार दो-दो लाख के साथ घायलों को भी पैसा देगी। दिल्ली भाजपा मृतकों को पांच-पांच लाख और घायलों को 25-25 हजार रुपये देगी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार राज्य के संबंधित मृतक के करीबियों को दो-दो लाख की आर्थिक मदद की घोषणा की है। अच्छी बात है, राजनैतिक दलों और सरकारों की यह संवेदना काबिले गौर है। लेकिन अगर वक्त रहते ऐसे अवैध कारखानों को बंद करा दिया जाता तो बेगुनाह लोग मरने से बच जाते। उनके परिवारों के सपने नहीं उजड़ते। करोड़ों रुपये आर्थिक  मदद में बेमतलब नहीं बहाये जाते। बदले में इस पैसे से दिल्ली का विकास कर लोगों को दूसरी सहूलियतें दिलाई जा सकती थीं, लेकिन दुर्भाग्य  से ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि दिल्ली में चुनावों का मौसम हैं लिहाजा ऐसी मौतों पर दंगल स्वाभाविक है। आम आदमी का यहीं सवाल है कि क्या देश की राजधानी और दूसरे महानगर मौत के कब्रगाह कब तक बनते रहेंगे। 
 

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